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आसान नहीं है (भाग-2)

Writer: Anonymous writerAnonymous writer


"वोट फ़ॉर SUI, वोट फ़ॉर SUI"- SUI को वोट दें और अपने कॉलेज एवं संपूर्ण विश्वविद्यालय को एक बेहतर स्थान बनायें। सुबह का समय था, इंडियन इकोनॉमिक्स की क्लास चल रही थी तभी इस नारेबाज़ी से पूरा कॉरिडोर थरथरा उठा। उसी वक़्त एक प्रत्याशी (Candidate) दरवाज़े को झटके से खोलते हुए अंदर आया और अपने चुनावी वायदों के बाणों से कक्षा को भेदने का प्रयास करने लगा। लेकिन, तभी मानों शर्मिष्ठा को न जाने क्या हुआ कि वह फट पड़ी, "अरे आप लोगों को कुछ शर्म आती है कि नहीं जो बिना कुछ किये हर साल हमारे सामने वोट मांगने चले आते हैं, आप क्या करते हैं हमारे लिए!" मेरे जैसे बहुत सारे बच्चे यहाँ महँगे PG लेकर रहने पर मजबूर होते हैं और महीने के आखिर में हमें खाने के भी लाले पड़ जाते हैं। क्या इस समस्या के बारे में आप लोगों ने कभी कुछ किया है? नहीं! कुछ करना तो दूर आप लोगों ने इसके बारे में कभी सोचा तक नहीं है, और इसके बावजूद आप आ जाते हैं मुँह उठाकर वोट मांगने!" "अरे मैडम आप इतना क्यों बरस रही हैं हम पर, असल में तो PG के किराए को रेगुलेट करना हमारे अधिकार क्षेत्र से बाहर है, लेकिन हाँ होस्टल के फ़ीस को नियंत्रित रखने के लिये हम ज़रूर प्रयास कर सकते हैं और हमने किया भी है।" "इसलिये, आप सभी से अनुरोध है कि आगामी छात्र संघ के चुनाव में हमें ही वोट दें। धन्यवाद!" यह कहकर SUI का प्रत्याशी बाहर चला गया और क्लास दोबारा चालू हो गई। माहौल थोड़ा शांत होने के बाद प्रोफेसर शर्मिष्ठा से बोले "तुम इतनी ज़ोर से भी बोल सकती हो? मुझे तो आज पता चला।"


मंगलवार का दिन था। आज शर्मिष्ठा को इन्द्रधनुष जाना था। वह गुरु तेग बहादुर नगर मेट्रो स्टेशन के पास ग्रामीण सेवा का इंतज़ार कर रही थी। आज वह थोड़ा लेट थी और उसे गाड़ी भी नहीं मिल रही थी। "हाय रे मेरी किस्मत! पता नहीं गाड़ी वाले सब के सब कहाँ मर रहे हैं, एक भी नहीं दिख रहा है। लगता है आज मिनी बस ही पकड़ के जाना पड़ेगा मुझे।" एक मिनी बस आई जो आनंद विहार से संत नगर होते हुए नत्थूपुरा जाती थी, शर्मिष्ठा उसी में बैठने के लिए तैयार हुई लेकिन बस ऐसी भरी हुई थी मानों जैसे स्टफ्ड शिमला मिर्च में मसाला। किसी तरह से ठेल-ठाल के वह बस के अंदर बैठ गई। बस में पाँव तक रखने की जगह न थी और हर दो-तीन मिनट में उसमें और सवारी ठूँसे जा रहे थे।


शर्मिष्ठा 3:10 बजे इंद्रधनुष पहुँची। ज्योति, प्रीति और कोमल उसका गेट के बाहर ही इंतज़ार कर रहे थे। "मैम आज आप इतनी लेट क्यों आयीं, हम इतनी देर से यहीं खड़े हैं।" प्रीति ने थोड़ा झल्लाकर पूछा। "अरे बेटा मत पूछो, मर-मर कर आयी हूँ।" चारों लोग दरवाज़ा खोलकर अंदर घुसे, हवा आने के लिए पिछला दरवाज़ा भी खोल दिया गया। शर्मिष्ठा बच्चों का होमवर्क चेक करने बैठी। "कोमल तुमने होमवर्क क्यों नहीं किया? तीन दिन की छुट्टी थी न।" "मैडम जी हम मेला देखने गए थे, इसलिए नहीं हुआ।" "तीनों ही दिन मेला देखने गयी थी तुम?" "नहीं बस एक ही दिन तो गए थे।" "फिर किया क्यों नहीं किया? अच्छा छोड़ो। पर ये तो बताओ कि मेले में क्या-क्या खाया तुमने?" "हम, उहाँ पर एगो (एक) आइसक्रीम खाए, उसके बाद हम बहुत्ते जलेबी खाए, उसके बाद हम समोसा और फुचका भी खाए। हमारा तो पेट ही पूरा फुल हो गया।" "अरे वाह! तुमने इतनी सारी अच्छी-अच्छी चीज़ें खायीं और मेरे लिए कुछ भी नहीं लायी!" कोमल शर्माकर हँसने लगी।


"अच्छा आज हम लोग एक ऐक्टिविटी करेंगे। मैं तुम सबको एक-एक चार्ट पेपर दूंगी और तुम्हें उसपर कुछ लिखना होगा और चित्र भी बनाना होगा। तुम लोग चिंता मत करो, क्या लिखना होगा और क्या बनाना होगा ये मैं अभी तुम्हें बताऊंगी। अच्छा, तो पहले मुझे बताओ कि तुम लोगों के घर के आस-पास पेड़ हैं?" "नहीं, मैम हमारे घर के पास कोई पेड़ नहीं हैं, एक भी नहीं है।" ज्योति ने उदास होकर जवाब दिया। "अच्छा कोई बात नहीं। तुम लोगों ने कहीं न कहीं तो ज़रूर पेड़ देखे ही होंगे। लेकिन, अब ये मत कहना कि देखे भी नहीं।" "हाँ, देखे तो हैं।" प्रीति ने जवाब दिया। "कोमल तुम बताओ कि हमें पेड़ों से क्या-क्या मिलता है?" "मैडम जी रोटी-सब्जी, दाल-भात, हवा-पानी सब कुछ पेड़ से ही मिलता है।" "अरे वाह! कोमल। तुम तो गाँव से आने के बाद खूब होशियार हो गयी हो।" "मैडम जी, गाँव में न हमारे बाबा (दादा) हमको पढ़ाते थे और ई सब हमें ऊहे बताए।" "अच्छा, ये तो बढ़िया बात है"- शर्मिष्ठा ने खिलखिलाकर कहा। थोड़ी देर के बाद ज्योति, प्रीति और कोमल तीनों ने चार्ट पेपर पर पेड़-पौधे बनायें और एक-एक कविता भी साथ में लिखी जो शर्मिष्ठा ने उन्हें एक पेपर पर लिख कर दी थी।


~ Anonymous

( Views expressed in the readers' article session are personal and not necessarily that of team 'Campus Perspectives' )



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